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बसंत / ब्रजेश कृष्ण
Kavita Kosh से
लाइब्रेरी की
कोने वाली सीट पर
बैठी वह लड़की
लाइब्रेरी में नहीं है
वह प्रतीक्षा में है
मैं उसकी प्रतीक्षा को
बेचैनी में
और बेचैनी को गुस्से में
बदलते हुए देखता हूं।
मैं अनुभव से जानता हूं
कि वह जानबूझ कर देर से आएगा
इसे मनाएगा
और बाहर ले जाएगा
कि लो! वह आ गया
मैं जल्दी से हवा में
घुल जाना चाहता हूं निस्पंद
ताकि देख सकूं चुपचाप
किताबों के इस बीहड़ जंगल में
बरसों बाद बसंत का खिलना।