बसंत / शिवनारायण जौहरी 'विमल'
यह समय नहीं है अँधेरे मैं रोशनी को ढूँढने का
नहीं है यह समय नंगे पतझड़ से यह; पूंछने का
कि बसंत अब तक क्यों नहीं आया या
आकर क्यों चला गया बिला दस्तक दिए।
उत्तर था कि बसंत अब आता ही कहाँ है
जब पेड़ पौधे फूल पत्ती हीं नहीं
तो कहाँ बैठेगा बसंत?
दो मौसमों के बीच बैठा रहता था बसंत
जहाँ मौसम बदलते ही नहीं
वहाँ बसंत कहाँ से आएगा
एयर कंडिशंड माचिस की डिब्बिओं में
न अलाव न रुई की रजाइयाँ
जिनके बीच में बैठा रहता था बसंत
उसका आसन छिन गया
तो कहाँ बैठेगा बसंत?
निरंतर दौड़ते जीवन को भी
ज़रुरत होती है बसंत की जैसे
तपती दुपहरी में राही को छाँव की
नयी पौध को टीचर केसे बताएगी
बसंत क्या है क्या पहिचान है उसकी
पहले मौसम बिछा देता था
इस क्षितिज से उस क्षितिज तक
जो बसंती रंग की चादर
वह फट गई है अब
छेदों से झाँकने लगा है फागुनी सूरज
पहले पलाश की आँखे खोलती कलियाँ
फागुन की पेशबाई करती थी
जब कट गए जंगल
रंगीले फाग की आरती उतारेगा कौन
डर से कांपते शहर के पास
बसंती हवा में घूमनें की
न फुर्सत है न इच्छा।
जिन्दगी मशीनों में
बंद हो कर रह गई है॥