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बसन्त-4 / नज़ीर अकबराबादी

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निकले हो किस बहार से तुम ज़र्द पोश हो।
जिसकी नवेद पहुंची है रंगे बसंत को।
दी बर में अब लिबास बसंती को जैसे जा।
ऐसे ही तुम हमारे भी सीने से जा लगो।
गर हम नशे में ”बोसा“ कहें, दो तो लुत्फ़ से।
तुम पास मुंह को लाके यह हंस कर कहो कि ”लो।
बैठो चमन में, नर्गिसों सदबर्ग की तरफ़।
नज़्ज़ारा करके ऐशो मुसर्रत की दाद दो।
सुनकर बसंत मुतरिब ज़रीं लिबास से।
भर भर के जाम फिर मयेगुल रंग के पियो।
कुछ कु़मारियों के नग़्मे को दो सामए में राह।
कुछ बुलबुलों का जमज़मए दिल कुशा सुनो।
मतलब है यह ”नज़ीर“ का यूं देखकर बसंत।
हो तुम भी शाद दिल को हमारे भी ख़ुश करो।

शब्दार्थ
<references/>