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बसन्त-9 / नज़ीर अकबराबादी
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जोशे निशातो ऐश है तरब जा बसंत का।
है तरफ़ा रोज़गार तरब जा बसंत का॥
बाग़ो में लुत्फ़ नश्वोनुमा की हैं कसरतें।
बज़्मों में नक्शा खुशदिली अफ़जा बसंत का॥
फिरते हैं कर लिबास बसंती वह दिलवरा।
है जिनसे ज़र निगार सरापा बसंत का॥
जा दरपे यार के यह कहा हमने सुबह दम।
ऐ जां है अब तो हर कहीं चर्चा बसंत का॥
तशरीफ़ तुम न लाए जो होकर बसंत पोश।
कहिए गुनाह हमने किया क्या बसंत का॥
सुनते ही इस बहार से निकला कि जिस तईं।
दिल देखते ही हो गया शैदा बसंत का॥
अपना वह ख़ुश लिबास बसंती दिखा ”नज़ीर“।
चमकाया हुस्न यार ने क्या-क्या बसंत का॥
शब्दार्थ
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