बसन्त और एक आदिम लय / प्रकाश मनु
लो, फिर उतरा है वसन्त
देह के पार-
खुशबुओं के गैरिक संगीत की तरह!
गुलाब के फूलों की
युवा मुसकराहट के साथ
द्वार-द्वार दस्तक देता है
मौसम
हल्दिया हथेलियों से-
और पीले चंदोवे इच्छाआंे के
झिलमिलाए हैं
दूर क्षितिजों के आरपार!
यह एक भरे-पूरे वसन्त के उत्साह
के साथ उड़ता
दिन है...
ठीक आकाश जैसा खुला और गहरा
और सुन्दर
धूप के मखमली स्पर्श
में लिपटी धुली
जलपांखियों की क्रीड़ातुर आहटें
उतरती हैं हृदय में,
और दूर तक वन-प्रांतर में
गूंजने लगती है कोई अव्यक्त खिलखिलाहट
गूंजते हैं
नदी-झरनों के विह्वल स्वर!
इस बार-तितली
नन्हें पंखों के इन्द्रधनुष
में बांधकर
उड़ाए लिए जाती है
समूची धरती!
हर बार की तरह
इस बार भी
धूप नहाई झील में
हंस युगलों की क्रीड़ा के साथ
परत दर परत
खुल रहा है
वसन्त
सुख!