भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बसन्त के छींटे / मंजूषा मन

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

उदासी की सफेद चादर पर
नज़र आ रहे हैं
पीले छींटे,

मौन साधे सूखे पपड़ाये होंठ
मुस्काने की चाह में
करने लगे हैं कोशिश
फैलने की...

शून्य में खोई सूनी आँखें
अब चमकना चाहतीं हैं,

मैं आईना देखती हूँ
परिवर्तन पर चौंक उठतीं हूँ
हल्के से मुस्कुरा देती हूँ खुद पर...

खिड़की से झांकते बसन्त से
लेकर एक बसन्ती पुष्प
खौंस लेतीं हूँ अपने जूड़े में

मैं, मुझे लुभाने लगी हूँ,
मैं एक सेल्फी लेकर
कर देती हूँ बसन्त के हवाले
और क्या देखतीं हूँ...
तुम भी बिखरे हो
हर ओर
बसन्त बनकर।