बसन्त / मानबहादुर सिंह
चाँदनी का सुख उस दरख़्त की छाया में
उदास है
वे तमाम सारे दिन जो दरख़्त से होकर गुज़रे हैं
तुम में हरे क्यों नहीं हैं ?
तुम्हारी पौराणिक स्मृतियों का उदास सुख
इस चाँदनी रात जैसा जादुई और गहरा है
कनपटी पर पसीने की चुनचुनाहट में
छिपे तुम्हारे दिन -- इस चाँदनी ने पी लिए ।
तुम्हें पता तो होगा -- इस दरख़्त से होकर
गुज़रे पतझरों का,
पर आज यह बसन्त उसकी लाल पत्तियों पर
अपने रक्ताभ चरण धर
इस चाँदनी के भाँग जैसे नशे में
कैसा भटक रहा है !
जब भी तुम उस पगडण्डी से होकर गुज़रे हो
जिस पर उसकी छाया है
तुमने ज़रूर देखे होंगे -- उसकी शाखों पर घोंसले
घोसलों में धड़कते नन्हे पंख
पंखों में सुनी होगी आकाश की पगचाप
मगर आकाश में चाँदनी की आहट
प्रतीक्षा के सुख जैसी कितनी उदास है ।
इस समय जब यह चाँदनी खिलखिला रही है
क्षितिज के बन्द होंठों में
किसकी पौराणिक साँस तुमको
चन्दन की महक की लोरियाँ सुना रही है ?
तुम्हारा यह सुख तुमसे कभी नहीं पूछेगा
उस पगडण्डी पर खड़ा हो
किसी सूरज का पता
क्योंकि वह तुम्हारे पसीने में डूबकर
दरख़्त की जड़ों में पक रहा है ।
तुम्हारी नींद तुम्हारी आँखों से
जो चुरा ले गया
अगली सुबह वही घोसलों के क़रीब फूलों में
फल की आहट महका रहा होगा ।
वह जो हर जगह से नदारद होकर है
उसे दरख़्त पंखों की तड़प में
जीवन जैसा सह रहा है --
उसे इस चाँदनी का आचमन दो
बसन्त अपने रक्ताभ चरण का अँगूठा
पतझर के पत्ते पर लेटा
आदि-पुरुष-सा पी रहा है ।