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बसाए दिल में हज़ारों हूँ आरज़ू मैं भी / सादिक़ रिज़वी
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बसाए दिल में हज़ारों हूँ आरज़ू मैं भी
तलाशे मुआश में फिरता हूँ कु-ब-कू मैं भी
तमाम शोला सिफत गुस्सा सर्द हो जाए
ज़रा सी कर लूँ अगर उनसे गुफ्तगू मैं भी
भलाई के लिए देता हूँ मशविरा उनको
बताएं आप ही क्या उनका हूँ अदू मैं भी
क्यों इल्तिफात का मरकज़ न उनकी बन पाया
विसाल के लिए बैठा था रू-ब-रू मैं भी
तुम्हीं अकेले नहीं हो सुकून के तालिब
तुम्हारे साथ रहा महवे जुस्तजू मैं भी
भटक न जाऊं कहीं तीरह -शब् से घबराकर
जलाए रखता हूँ एक शाम-ए-आरज़ू मैं भी
ज़माना कहता है 'सादिक़' को बेसुरा लेकिन
यक़ीन मानिए तुम सा हूँ खुश-गुलू मैं भी