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बसा-औक़ात आ जाते हैं दामन से गरेबाँ में / साइल देहलवी

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बसा-औक़ात आ जाते हैं दामन से गरेबाँ में
बहुत देखे हैं ऐसे जोश-ए-अश्क चश्म-ए-गिर्यां में

नहीं है ताब ज़ब्त-ए-ग़म किसी आशिक़ के इम्काँ में
दिल-ए-ख़ूँ-गश्ता या दामन में होगा या गरेबाँ में

मुबारक बादिया-गर्दो बहार आई बयाबाँ में
नुमूद-ए-रंग-ए-गुल है हर सर-ए-ख़ार-ए-मुग़ीलाँ में

ज़ियादा ख़ौफ़-ए-रूस्वाई नहीं है सोज़-ए-पिन्हाँ में
धुआँ होता है लेकिन कम चराग़-ए-ज़ेर-ए-दामाँ में

हमेशा पी के मय जाम ओ सुराही तोड़ देता हूँ
न मेरा दिल तरसता है न फ़र्क़ आता है ईमाँ में

मज़ा क्यूँ काविश-ए-ज़ख़्म-ए-जिगर का आज कम कम है
नमक की कोई चुटकी रह गई होगी नमक-दाँ में

जनाब-ए-क़ैस ने दिल से भुलाया दोनों आलम को
जुनूँ के चार हर्फ़ों का सबक़ लेकर दबिस्ताँ में

बहार आई मिला ये हुक्म मुझ को और बुलबुल को
कि वो काटे क़फ़स में ख़ाक छानूँ मैं बयाबाँ में

तरन्नुम-रेज़ियाँ बज़्म-ए-सुख़न में सुन के ‘साइल’ की
गुमाँ होता है बुलबुल के चहकने का गुलिस्ताँ में