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बस्तर-- बदलते रूप ज़िन्दा परम्पराएँ / शरद चन्द्र गौड़
Kavita Kosh से
आँखों पर चश्मा
सिर पर साफ़ा, कमर में लुंगी बाँध
चल पड़े
अपनी मंज़िल की ओर
साईकिल के पैडलों पर
ज़ोर लगाते
पीछे अपनी पत्नी को बिठा
उल्लासित, प्रसन्न
अपनी मस्ती में मस्त इंतज़ार में
‘दी घर का
नगाड़ों की आवाज़
हल्दी की महक
महुए की मंद (मदिरा) की तीखी ख़ुशबू
मदहोश करती, मस्त करती
मस्ती में सरोबार करती
परम्पराओं का निर्वहन
संस्कृति का संवहन करती