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बस्ती जादूगरों की / दिविक रमेश

Kavita Kosh से
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आओ

ज़रा गप्प-शप्प हो जाए

बेड़ियाँ तो

जब चाहे

तोड़ ही लेंगे।


कविता ही तो है
जब चाहा लिख देंगे
जब चाहा उड़ लेंगे।


जाल भी अपना है
कबूतर भी अपने हैं।


कविता जब

तमाशा ही है

तो पेट में खाए हुए पत्थर

हवा में उछाला हुआ सिक्का

काठ का बजरबट्टू

उड़ा देने की संभावना


सभी से

मन बहलाया जा सकता है

तमाशबीनों का


तमाशबीन--
जिन्हें पता होता है
कि कहीं-न-कहीं
सफ़ाई है हाथ की
तब भी
जिन्हें
मज़ा आता है।