बस्ती में से रेल / गुल मकई / हेमन्त देवलेकर
रेल से पटरियों का भले एक ही रिश्ता हो
पर इस बस्ती के
पटरियों से अनेकों हैं नाते
ओटला, अहाता
घाट नदी का, ओसारा,
बरामदा स्कूल का, बगीचा
चरागाह, हाट, सैरगाह
सिगड़ियाँ सुलगाने का मचान
कपड़े सुखाने की तार
चोटियाँ गूँथने का आंगन
पार्क की बेंच, शौचालय
सूअरनी का प्रसूति गृह
कुत्तों का रेस्ट हाउस...
पटरियाँ उन उन सलाइयों–सी
जिन पर बस्ती की घनी दुनिया का
स्वेटर बुना जा रहा
यहाँ रफ़्तार के गुरूर पर
रेल लगाम कसती
और सीटी बजाती
जैसे इजाज़त मांगती
एक जमा-जमाया संसार
अनमनेपन से होता
टस से मस
हिचकिचाते गुज़रती रेल
और सीटी बजाती
जैसे शुक्रिया कहती
ताश के पत्तों और फुर्सत के बीच से
गुज़रती रेल
कंघी और उलझे बालों के बीच से गुज़रती,
साबुन और पानी के बीच से,
गुमठी और पैसा पकड़ी नन्ही मुट्ठी के बीच से
रेल गुज़रती
मुर्गी के दड़बे में से...
बकरी के खूँटे को कँपाती
नाली में बहते झाग के समानान्तर
गुज़रती रेल
घर के हर कमरे से गुज़रते
एक नया ही कमरा होती
और सिग्नल जब यहीं रोक देता
रेल, दो पड़ोसी देशों के बीच
‘नो मेन्स लैंड’ लगती
और यह पृथ्वी दो गोलार्धों में बँट जाती
इस अलगाव में भी संवाद की गुंजाइश निकल ही आती है
दयनीय से मकानों का
उजाड़ टूटता है
एक चमक फूटने के साथ
बाहरी आंगन हरकत में आते हैं
एक गति दौड़ती है
कई सारी भरी टोकनियाँ
मालदार आवाज़ों के साथ
रेल की खिड़कियों पर मंडराती हैं