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बस्ती से अगर उसका टकराव नहीं होता / प्रफुल्ल कुमार परवेज़

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बस्ती से अगर उसका टकराव नहीं होता
शीशे की हवेली पर पथराव नहीं होता

ये बात अलग धूप बराबर नहीं बँटती
सूरज का कभी ऐसा प्रस्ताव नहीं होता

मैं जब भी कभी उससे गले मिल के हटा हूँ
पूछो तो मेरी पीठ पे कब घाव नहीं होता

सुनते है कि हम लोग भी इन्सान हैं लेकिन
देखा है कभी ऐसा बर्ताव नहीं होता

इस दौर का ये वक़्त तुम्हारा ही सही लेकिन
सुनते हैं कहीं वक़्त का ठहराव नहीं होता