भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
बस्स! बहुत हो चुका / ओमप्रकाश वाल्मीकि
Kavita Kosh से
जब भी देखता हूँ मैं
झाड़ू या गन्दगी से भरी बाल्टी
कनस्तर
किसी हाथ में
मेरी रगों में
दहकने लगते हैं
यातनाओं के कई हज़ार वर्ष एक साथ
जो फैले हैं इस धरती पर
ठंडे रेत-कणों की तरह
वे तमाम वर्ष
वृत्ताकार होकर घूमते हैं
करते हैं छलनी लगातार
उँगलियों और हथेलियों को
नस-नस में समा जाता है ठंडा ताप
झाड़ू थामे हाथों की सरसराहट
साफ़ सुनाई पड़ती है भीड़ के बीच
बियाबान जंगल में सनसनाती हवा की तरह
गहरी पथरीली नदी में
असंख्य मूक पीड़ाएँ
कसमसा रही हैं
मुखर होने के लिए
रोष से भरी हुई
बस्स,
बहुत हो चुका चुप रहना
निरर्थक पड़े पत्थर
अब काम आएँगे
संतप्त जनों के!!