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बस, बची रहूँगी मैं प्रेम में... / लीना मल्होत्रा

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एक दिन जब मै चली जाऊँगी
तो घर के किन्हीं कोनो से निकलूँगी फ़ालतू सामान में
बहुत समय से बंद पड़ी दराज़ों से निकलूँगी किसी डायरी में लिखे हिसाब से
मेरे किसी पहने हुए कपड़े में कभी अटकी पड़ी रहेगी मेरी ख़ुशबू
जिसे मेरे बच्चे पहन के सो जाएँगे
जब मुझे पास बुलाना चाहेंगे
मै उनके सपनों में आऊँगी
उन्हें सहलाने और उनके प्रश्नों का उत्तर देने

मै बची रहूँगी शायद कुछ घटनाओं में
लोगों की स्मृतियों में उनके जीवित रहने तक
गाय की जुगाली में गिरती रहूँगी मैं
जब
वह उन रोटियों को हज़म कर रही होगी जो उसने मेरे हाथ से खाई थीं
बहुत दिन तक
उन आवारा कुत्तों की उदासी में गुम पड़ी रहूँगी मैं
और मेरी सीढ़ी पर पसरे सन्नाटे में वे खोजेंगे मेरी उपस्थिति

मै मिलूँगी
सड़क के अस्फुट स्पर्शो के खज़ाने में जब वह अपनी आहटों को जमा करने के लिए खोलेगी अपनी तिज़ोरी
और
पेड़ की उन जड़ों में जिन्हें मैंने सींचा था
उसके किसी रेशे की मुलायम याद में पड़ी मिलूँगी मै एक लम्बे अरसे तक
किसी बच्चे की मुस्कराहट में बजूँगी मंदिर की घंटी जैसी
बस बची रहूँगी मै प्रेम में
जो मैंने बाँटा था अपने होने से...
दिया था इस सृष्टि को...
तब ये सृष्टि देगी मुझे
मेरे चुक जाने के बाद बचाए रखेगी मुझे...