बस इतने से आए हो? / सुषमा गुप्ता
हथेली खोलना ज़रा
तीन रातों की नींद रखनी है
और ये पलकें मत मूँदों यूँ हँसते हुए
चार पूरे दिनों का इंतजार भी तो रखना है तुम्हारी आँखों में
96 घंटों के सैकंड गिनने जैसी तो अँगुलियाँ तुम्हारे पास यकीनन न होगी,
लो, मेरी रख लो अपनी आस्तीन के ऊपर।
कभी-कभी सोचती हूँ अगर अचानक से मिलना हो जाता तो इतनी सारी सौगात इकट्ठी कैसे होती?
लो! मैं भी कैसी पागल हूँ
ये भी रस्म ही होती होगी कोई
अच्छा सुनो
वो दो कंचे, चंद बेर,
और अपनी छत पर शाम ढले आने वाले पंछी का कोई यूँ ही उतरा हुआ एक पंख लाए हो न?
और वह कच्ची-सी धूप, जो तुम्हारी मुँडेर से रोज़ उगती है,
उसका एक टुकड़ा भी तो चाहिए मुझे, भूले तो नही?
अपनी बादल की झरनी भी देने का वादा किया था तुमने,
वही वाली जिससे सारा का सारा नीला आसमान छान लेते हो तुम अपने चश्मे के पीछे से।
तुम्हारी टेबल पर जामुनी फूल रख दिए हैं बेतरतीब से
जैसे तुम हो सदा से
लापरवाह
आओ बैठो!
समय कम है और बातें ज़्यादा और मन उससे भी ज़्यादा
चलो जाओ रहने दो
किसी और जन्म आना
खुद को पूरा ले कर।