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बस एक बूँद थी औराक़-ए-जँ में फैल गई / सिद्दीक़ मुजीबी

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बस एक बूँद थी औराक़-ए-जाँ में फैल गई
ज़रा सी बात मिरी दास्ताँ में फैल गई

हवा ने हाथ बढ़ाया ही था कि लौ मेरी
तमाम शश-जिहत-ए-जिस्म ओ जाँ में फैल गई

वो ख़्वाब था कि खुला था दरीचा-ए-शब-ए-हिज्र
तिरे विसाल की ख़ुशबू मकाँ में फैल गई

जो उस के बाद हवा उस से बे-ख़बर थे सब
हवा ने कुछ न कहा बादबाँ में फैल गई

खुला कि वहम था आब ओ सराब की तमीज़
प्यासी धूप थी आब-ए-रवाँ में फैल गई

मैं उस के तर्ज़-ए-तख़ातुब का ज़हर पी तो गया
मगर अजीब सी तल्ख़ी ज़बाँ में फैल गई

ज़ियाँ-नसीब शआर-ए-वफ़ा सरिश्त में है
ये बात कैसे सफ़-ए-दुश्मनाँ में फैल गई