हवा कि तेज़ सरसराहट से
शाख से अलग हुआ पत्ता
इठलाता, झूमता
घूमता हुआ इधर उधर
बह चला नदी के पानी में
तैरता हुआ ...बोला
ओह मुझे तैरना भी आता है ...
यु ही टंगा था इतने दिनों से?
शाम ढले शाख ने आवाज़ दी ...
लौट आओ ...
पर पत्ता हुआ उदास
बोला नहीं रही अब ये
मेरे बस की बात