भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
बस गया तेरा ख़्वाब आँखों में /वीरेन्द्र खरे 'अकेला'
Kavita Kosh से
बस गया तेरा ख़्वाब आँखों में
तैरते हैं गुलाब आँखों में
चलते रहते हैं हर घड़ी हर पल
कुछ हिसाबो-किताब आँखों में
मुझको तारे दिखाई क्या देंगे
है यहाँ आफ़ताब आँखों में
तेरा दीदार मयकशी जैसा
भर गई है शराब आँखों में
दर्द मिल जायेंगे टहलते हुए
झाँकिए तो जनाब आँखों में
हलचलें दिल की इस क़दर फैलीं
आ गया इन्क़लाब आँखों में
ऐ ‘अकेला’ वो लब न खोलेंगे
ढूँढ़ना है जवाब आँखों में