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बस जीने की कला नहीं आई / प्रदीप शुक्ल
Kavita Kosh से
सब कुछ आया
बस जीने की कला नहीं आई
चाहा,
सब हों सुखी,
भले दुख हो जाए अपना
मगर देखते रहे हमेशा
सपनों में सपना
खुली आँख भी
सपने लेकिन भुला नहीं पाई
लगता था
इंसान हमेशा
अच्छा ही होता
ऐसा होता तो शायद
कितना अच्छा होता
संशय का पर
ज़हर जिंदगी पिला नहीं पाई
हम तो
जीवन में
ऐसे ही बेढंगे से हैं
भीतर बाहर मटमैले
रँग में रंगे से हैं
हुशियारी की कला,
हमें तो भला नहीं आई