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बस प्यास ही मुझे मिली / उर्मिल सत्यभूषण
Kavita Kosh से
बादे सवा गुज़र तो ज़रा करीब से
पैग़ाम कह आना ज़रा मेरे हबीब से
मैं रोज़ रास्ता निहारती हूँ तेरा
तेरे सिवाय कौन अब कासिद बने मेरा
सब दूर हो गये हैं मुझ बदनसीब से
बस तू जुड़ी है मुझसे और मेरे हबीब से
मेरे हाथ में आया तो था जिं़दगी का जाम
मेरे होंठ गीत गा रहे थे लेके उसका नाम
किस्मत ने किया खेल लेकिन मुझ गरीब से
मैं क्यों गिले करूँ भला किसी रकीब से
मैं बिन पिये ही झूमती थी खुद ही गिर पड़ी
मेरे हिस्से की छलक गई मैं देख रो पड़ी
बस प्यास ही मुझे मिली मेरे नसीब से
बेसुध सी मैं बिछुड़ गई अपने हबीब से
कहना उसे नसीम बनकर इधर तो आ
सलीब ढो रहा मसीहा आ के देख जा
सहला जा दुःख रही है पीठ इस सलीब से
तू देख आ के खिंच नहीं रही गरीब से।