बस भरोसा करना होता है / प्रगति गुप्ता
हैं हम सभी जब
उपज प्रेम की
तो प्रेम हमें क्यों छूता नहीं...
जिसका बीज़ ही प्रेममय हो,
तो क्यों हर बात का हल
फिर प्रेम से निकलता नहीं...
दब कर मिट्टी में बीज़
जब निस्वार्थ खुद को खो देता है...
अपने फूटने के सभी हक़
जब मिट्टी पर छोङ देता है...
तब मिट्टी भी प्रेम से सींच उसे,
उसकी हिफ़ाजत खुद में,
समेट-समेटकर करती है...
उस बीज़ के बाहर आने से पहले तक
प्रेम से बाँहों में बाँध उसे
ऊपर बढ़ने के हौसले वही,
बीज़ को देती है...
फिर-
मिट्टी से बाहर बढ़ने पर
उसी बीज़ के वृक्ष बनते ही
खुद को बाँधने के हक़ वो
सहर्ष ही सौंप देती है...
जब बंधा हो कोई रिश्ता सिर्फ़ प्रेम से
तो देना-लेना स्वतः ही होता है...
हर रिश्ते के पनपने और मजबूती देने में
दो जन को अहम को छोड़,
एक-दूसरे के सुपुर्द कर
बस भरोसा करना होता है...