बस में नींद लेती एक स्त्री / प्रेमचन्द गांधी
घर से दफ़्तर के स्टाप तक
सिटी बस के चालीस मिनट के सफ़र में सुबह-शाम
पैंतीस मिनट नींद लेती है स्त्री
घर और दफ़्तर ने मिलकर लूट ली है स्त्री की रातों की नींद
वह स्त्री आराम चाहती है जो सिर्फ़ बस में मिलता है
स्त्री इस नींद भरे सफ़र में ही हासिल कर पाती है
अपने लिए समय
स्त्री के चेहरे पर ग़म या ख़ुशी के कोई निशान नहीं है
वहाँ एक पथरीली उदासी है
जो साँवली त्वचा पर बेरुख़ी से चस्पाँ कर दी गई है
उसके एक हाथ की लकीरों में बर्तन माँजने से भरी कालिख़ है
तो दूसरे हाथ में ख़राब समय को दर्शाती पुरानी घड़ी है
जल्दबाजी में सँवारे गये बालों में अंदाज़ से काढ़ी गई माँग है
और माँग में झुँझलाहट से भरा गया सिंदूर है
आपाधापी से भरी दुनिया में अब
वह भूल चुकी है माँग और सिंदूर के रिश्ते की पुरानी परिभाषा
स्त्री की आँखों में नींद का एक समुद्र है
जिसमें आकण्ठ डूब जाना चाहती है वह
लेकिन घर और दफ़्तर के बीच पसरा हुआ रेगिस्तान
उसकी इच्छाओं को सोख लेता है
स्त्री इस महान गणतंत्र की सिटी बस में नींद लेती है
गणतंत्र के पहरुए कृपया उसे डिस्टर्ब न करें
उसे इस हालत तक पहुँचा देने वाले उस पर न हँसें
उसकी दो वक्तों की नींद
इस महान् लोकतंत्र के बारे में दो गम्भीर टिप्पणियाँ हैं
इन्हें ग़ौर से सुना जाना चाहिए