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बस : कुछ कविताएँ-1 / रघुवंश मणि
Kavita Kosh से
बिगड़ गई है बस
खड़ी है किनारे
ठुक-ठुक
लगाए है डाईवर
गाड़ी के नीचे
उत्सुकतावश झुके हैं
कुछ लोग
चाय की दुकान की
तलाश में
दस-पाँच
करीब की सवारियाँ सड़क पर
दो-चार
रोकती हैं आते
जाते वाहन
बाक़ी कुछ
अंदर झल रहे हैं
उबाऊ अख़बार
बता गया है परिचालक
टिकट का पैसा
वापस नहीं होगा