भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
बस : कुछ कविताएँ-2 / रघुवंश मणि
Kavita Kosh से
बड़ी भीड़ है
साँस लेना भी
कठिन है
गाड़ी मत रोको
तेज़ चलने पर
लगती है हवा
कड़ी है धूप
हिलता है राह में
एक बेचारा हाथ
रुकती है बस
चढ़ता है एक
गरियाते हैं सौ
बस में होने
और बाहर होने में
यही फ़र्क है