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बहकना ख़ामखां हर बात पर अच्छा नहीं लगता / कृपाशंकर श्रीवास्तव 'विश्वास'

बहकना ख़ामखां हर बात पर अच्छा नहीं लगता।
मनाना जश्न मुझको आह पर अच्छा नहीं लगता।

हँसे कुदरत भले रख सन्तरे पर फालसा लेकिन,
हमें ये दा़ग अपने चाँद पर अच्छा नहीं लगता।

किया पैदा गुलों के साथ कुदरत ने इसी बाइस,
कोई इल्ज़ाम हमको ख़ार पर अच्छा नहीं लगता।

न जाने कब रहम आयेगा बकरी भेड़ गायों पर,
सुरक्षा तन्त्र केवल बाघ पर अच्छा नहीं लगता।

बहारे गुल है महके बाग़ मौसम जाफरानी है,
हमें तावीज अपनी बाँह पर अच्छा नहीं लगता।

जरूरी माद्दा बरदाश्त का पैदा करें दिल में,
मियाँ हर वक़्त गुस्सा नाक पर अच्छा नहीं लगता।

जिसे जागीर दिल की सौंप दी, हो मुतमइन ‘विश्वास’
जताना शक उसी मुख्तार पर अच्छा नहीं लगता।