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बहती नदी / पृथ्वी: एक प्रेम-कविता / वीरेंद्र गोयल
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जब तुम नहीं होतीं
तब भी
इतनी ही याद आती हो
जितनी तुम्हारे होने पर
कई बार तो
अँगुली भर दूरी भी
आसमान समेट लेती है
ब्रह्मांड के दो छोरों के बीच
बह जाती है याद
समय की नदी में
उतनी ही सरलता
सहजता से
जैसे तैरती मछली
बिना किसी प्रयास के,
जैसे बहता पानी
बिना किसी आस के।