बहती होंगी बसंत / वाल्टर सेवेज लैंडर / तरुण त्रिपाठी
बहती होंगी बसंत और गर्मी की ऋतु में हवाएँ
और फिर बारिश, तेज़ और मूसलाधार;
कोमल पत्ते, खा कर हलके थपेड़े
चमकते हैं और अधिक फुहार और झकोर में
पर जब आता है उनका नियत वक़्त,
जब फ़सल काटने वाले बहुत पहले छोड़ चुके होते हैं खेत
जब युवतियाँ तलाशती हैं तैयार हो चुके मधुछत्ते
और सेब अर्पित कर रहे होते हैं अपना आख़िरी सत्व
एक पत्ता शायद तब भी बचा हो सकता है
किसी एकांत वृक्ष पर
उन हवाओं और उन बारिशों के बावज़ूद
एक चीज़ जो दिखेगी ध्यान दें तब ―
आख़िरकार झड़ जाता है वह भी.
किसे परवाह है? किसी को भी नहीं :
और फिर भी पृथ्वी की कोई भी शक्ति
कभी पुनर्स्थापित नहीं कर सकती एक झड़ा पत्ता
उसके डाल पर, इतना सरल है जिसे अलग करना..
प्यार भी ऐसा ही है, मैं नहीं कह पाऊँगा,
दोस्ती ऐसी ही है, ये मैं बहुत अच्छे से जानता हूँ;
तो मैंने आनंद ले लिया है अपने ग्रीष्मकालीन दिनों का;
यह गुज़र गया है : अब नीचे पड़ा है मेरा पत्ता