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बहते रहते वृद्ध आँख से / राजपाल सिंह गुलिया
Kavita Kosh से
बहते रहते वृद्ध आँख से,
खारे जल के पतनाले।
तनहाई से गम का दरिया,
संभले नहीं संभाले।
गर्म चाय की एक याचना,
खून बहू का खौल रही।
आँगन बीच उछलती पगड़ी,
धीर जरठ का तौल रही।
बड़ी बहू भी बड़े अदब से,
कानों के झाड़े जाले।
लौट गई ससुराल सुता भी,
रिश्तों से खाकर झिड़की।
बंद नेह का दर करके ये,
खोल रहे घिन की खिड़की।
कभी लाख के हुए खाक के,
हैं उसके खेल निराले।
परमधाम जब गई ज़नानी,
सून हो गया जग सारा।
सहमा-सा अब रहता जैसे,
वीर पड़ा रिपु की कारा।
रोज निगलता अपमानों के,
सूखे अश्रु संग निवाले।