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बहने का सत्य / पूनम चौधरी

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बहती रही नदी —
अविराम, अनवरत, अथक।
कठोर घात काल के
न रोक सके उसे,
न मरी तीव्रता धार की।

पाषाण था खड़ा —
खड़ा ही रहा,
मानकर अटल स्वयं को।
स्थिरता का अहम
धरे माथे पर,
अस्वीकार करता रहा —
नदी के स्पर्श को
न माना अस्तित्व,
भरता रहा असहमति।

नदी ने राह बनाई
इसी वेग की व्यथा से।
गला दी कठोरता —
अश्रुओं की धार से।
रिसती रही धीरे-धीरे,
करती रही गीला
पत्थर के अभिमान को।

कालांतर में,
अनगिनत पाषाण,
अनंत अहंकार
कण-कण में घुलने लगे।
ढलने लगे गोलाइयों में
और एक दिन
नदी के संग बह निकले।

वृक्षों ने देखा —
कैसे थामकर जड़ें,
निरंतर झड़ती रही पत्तियाँ।
जूझती रही शाखाएँ,
बदलती रही संगीत
हवा के अनुरूप।

ज्वाला भी जानती है —
नहीं है अस्तित्व
केवल धधकने में।
कभी बनकर राख भी
जन्म लेती है चिंगारी।

चंद्रमा ने भी जाना —
अमावस्या और पूर्णिमा
सिखाती हैं परिवर्तन का मर्म।
कि घटने और बढ़ने की
इस यात्रा में भी
पूर्णता का एक बिंदु
अवश्य आता है।

और तब —
यह रिक्तता रखती है नींव
नई परिपूर्णता की।

नदी जानती है सत्य —
गतिशीलता का अवरोध
परीक्षा है
परिवर्तन का मार्ग है।
पर अंततः —
हर पाषाण का भाग्य
जल में विलीन होना ही है।

तो बहो।
डरो मत, ठहरो मत।
विनम्र बनो —
पर टूटो मत।
विश्राम आवश्यक है,
पर पीछे हटना
कायरता है।

क्योंकि जीवन
रुकने से नहीं —
बहने से होता है पूर्ण।
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