बहनों का चिड़चिड़ाना / पल्लवी विनोद
तुम्हारी नजर में जो भगवान हैं
उन्होंने तुम्हारी ही बहनों को इंसान नहीं समझा
बर्तनों की खटर-पटर से नींद न खुल जाए
सोचकर तुम्हारा दरवाजा लगाने वाले हाथों ने
बहन की चादर खींच
झूठे बर्तनों के पास बैठा दिया था।
शाम का सूरज छत पर देखने वाली बहनों के गन्दे नाम
रखने वाली तुम्हारी ही दादियों ने
तुम्हें चांदनी में नहाने के पैसे दिए थे।
होली दीवाली में जब तुम नए कपड़े पहन कर इतराए
तुम्हारी बहनों ने अम्मा की छोड़ी साड़ियों
के कुर्ते सिए थे।
बहुत मुश्किल है जो घटा नहीं उसे महसूस कर पाना
तुम नहीं समझ पाओगे अपनी बहनों का चिड़चिड़ाना
बात-बात पर आँसू भरने वाली बहनों के मन में
उपेक्षाओं का एक पहाड़ ज़ब्त है
जो हर नई आँच से पिघल जाता है
और तुम कहते हो, उसे खुश रहना ही नहीं आता है
रास्ते में क्लास के लड़के से बात करने पर नील पड़ गयी थी
उसी बहन को तुम अपनी आशिकी के किस्से सुनाते हो
जिन बेटियों को बहू बनाकर पाला गया
उन्हीं को अपनी कमसिन बीवियों के दुखड़े बताते हो
गर भूल से वह कह बैठी "ये तो हर घर में चलता है"
तुम कहोगे, अपने भाई की गृहस्थी से ऐसे कौन जलता है?
कभी देखा है अपने ही आँगन से चिड़ियों का सहम जाना
तुम नहीं समझ पाओगे अपनी बहनों का चिड़चिड़ाना...
हँस कर माफ़ नहीं की गईं जिसकी नादानियाँ
वो छिपा लेती है तुमसे, अपनी परेशानियाँ
तुम्हारे-उसके, रूठने-मनाने के किस्सों से ही
समृद्ध है उसके बचपन की कहानियाँ
वो हर बार बहुत उम्मीद से तुम्हारी तरफ देखती है
शायद इस बार लड़कपन का स्नेह तुम्हारी आँखों में उतर जाए
तुम पूछो, "तू ठीक तो है ना!"
और वह फफक कर तुम्हारे सीने से लग जाए
मायके में कुछ दिन ज्यादा रुक जाने पर
वो पढ़ लेती है तुम्हारी आँखों का बदल जाना
नहीं! तुम नहीं समझ पाओगे अपनी बहनों का चिड़चिड़ाना।