भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
बहरापन-4 / ऋषभ देव शर्मा
Kavita Kosh से
बहुत दिन
सहा मैंने,
सुनती रही चुपचाप,
झेलती रही
मारकाट सारी,
पर तुम तो उतारू हो गए
मेरी पहचान मेटने पर;
चिल्लाओ मत,
बहरी नहीं हूँ मैं;
और आज से
गूँगी भी नहीं !