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बहादुरगढ़ का बहादुरलाल / प्रकाश मनु

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बहादुरगढ़ के बहादुरलाल से
कभी मिलो
तो देखोगे कि
वह कांप रहा है
उसके हाथ उसके पैर उसके जूते
की एड़ियां तक...
यह यकीनन कांप रहा होगा
जैसे जूड़ी बुखार हो उसे
या फिर अभी-अभी बरफ के पानी में
नहाकर निकला हो

पर...ऐसा है नहीं-
तुम देखोगे कि जल्दी से जल्दी अपनी बात पूरी करने की कोशिश में
वह हकलाने लगेगा
हर बार कीचड़ में धंस जाती है उसकी बैलगाड़ी
और वह हारकर बेवकूफ नजरों से आपकी ओर
देखने लगता है
कि लगा सको तो इस बे-इलाज कंपकंपी से ही
अंदाजा लगाओ
वह तुम्हारे पास क्यों आया है

तुम छूटते ही कहना चाहोगे-
अरे यार
तुम तो बहादुरगढ़ के हो
नाम भी बहादुरलाल
फिर क्यों इस तरह बेहाल हो!

छोड़ो यार, बताओ कुछ हरियाणा के हालचाल
-ताऊ कैसा है?
मगर कहना मत
मैंने कहा था
और वह चक्कर खाकर
जमीन पर गिर पड़ने को हुआ था

तोबा! तोबा!!
अजीब अहमक है बहादुरलाल
कोई छोटा-मोटा मजाक तक
बर्दाश्त नहीं कर पाता
दकियानूस...कि जैसे होते हैं सभी बेरोजगार
जिन्हें दुनिया सिर्फ ईंट और ढेले मारती
नजर आती है

वैसे ईंट और ढेले कोई अजनबी तो नहीं
ईंट और ढेलों पर ही बैठ-बैठ खेल-खेल
कर पढ़ा है बहादुरलाल
अटकते-अटकते पढ़ाई पूरी करने के बाद
अब सूई जिस रिकार्ड पर है
वहां उसे नौकरी की सख्त तलाश है
या फिर काम चाहिए...फौरन से पेश्तर

उसी चक्कर में साढ़े नौ वाली ई.एम.यू.
उसे रोज गांव से शहर उछाल देती है
और शहर में
वह
जिस-तिस के आगे बिछ जाता है
(जिस चेहरे पर भी उड़ती दिखती है जरा सी भाप
वहीं आंख गड़ा देता है!)

कैसे बहादुरलाल
यूनिवर्सिटी की एक-एक
सीढ़ी चढ़ा
कैसे डरते-डरते बोलने लगा अंग्रेजी
यहां तक कि लड़कियांे तक से दो-चार शब्द
सॉरी मिस...आई...सी...
यह सब (और इस सब के पीछे की धूलभरी कहानी)
मत पूछो-
लेकिन कह रहा हूं कि उसके हाथ में
कुछ सर्टीफिकेट हैं
और वह किसी प्यासे बैल की तरह
दिल्ली की सड़कों पर
हांफता अक्सर देखा जा सकता है

अब तक ना कोई नौकरी
ना कामधाम
मगर बेनागा गांव से शहर
आता है रोज
घर पर ठंडी मुसमुसाई गरीबी के बीच
छूट जाती है मां-बीवी
एक-डेढ़ जोड़ा कपड़ों में
और एक नंगा बच्चा
जिसका जिगर बढ़ गया है
जो अक्सर बाप की फालतू हो चुकी
किताबों से घर बनाता है
और हर बार वह घर
बनते-बनते गिर जाता है

घर गिरते ही बहादुरलाल
की कंपकंपी बढ़ जाती है
वह शहर की ओर लपकता है...

दिल्ली में दुर-दुर बहुत होती है
जब वह कहीं आता-जाता है
फिर भी दफ्तरों का पता लगाकर
जा धमकता है
चपरासियों से करता है देर-देर तक
घुल-मिलकर बातें
हर अफसर के गेबिन में जा घुसता है

और अब कुछ दिनों से
महानगर के लोग परेशान हैं
भयंकर अफवाह है कंकरीट के शहर में
कि बहादुरगढ़ का कोई बहादुरलाल है
जो बेहाल सा आपके पास आएगा...
और मानो न मानो
चिपक ही जाएगा आपकी धुली हुई नफासत पर
एक बेड़ौल स्याही के धब्बे की तरह,
कहेगा-मैं भी तो हूं लेखक
फिल्मी और लिटरेरी पत्तरकार
बताइए, क्या कमी है मुझमें
क्यों नहीं देते मुझे काम आप लोग
उलटा हंसते हैं-यह क्या गुंडई है!

या फिर देख लीजिए मेरी ढेरों रचनाओं में से
चुन लीजिए आप खुद...
झोले में ठुंसी हैं!
(ज्यादातर पत्र-पत्रिकाओं से वापस आई!)

लोग हैरान हैं-
ऐसा असभ्य गंवार कैसे घुसा चला आता है
इस कदर...
ओफ!
इसे लेना क्या साहित्य से?

दोस्त, शायद वह
तुमसे भी कभी मिले
(बल्कि ज्यादा संभावना इस बात की है
एक दिन तुम दफ्तर आओ
तो वह तुम्हारी मेज से चिपककर बैठा हो!)
मिले तो
उसे मेरा सलाम कहना!

आजकल उसके चेहरे में
एक सही चेहरा उग रहा है...

और सुनो
तुम्हारे पास वह आए
तो उसे कुछ भी दो या मत दो
मगर झूठी तसल्ली मत देना!