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बहादुरशाह ज़फ़र की ख़िदमत में / कांतिमोहन 'सोज़'

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(बहादुरशाह ज़फ़र की ख़िदमत में)

उठके आ भी न सकूँ दाग़ दिखा भी न सकूँ
संगदिल थी तेरी महफ़िल कभी ऐसी तो न थी।

तेरी रहमत को तग़ाफुल<ref>देरी</ref> तो रहा है हरदम
मेरे अहवाल<ref>हालात</ref> से ग़ाफ़िल कभी ऐसी तो न थी।

लोग आते ही रहे रोते-रुलाते भी रहे
शहरे-ख़ामोश<ref>शमसान</ref> में हलचल कभी ऐसी तो न थी।

आँख में जाम लिए गोद में एक शाम लिए
ज़िन्दगी मेरे मुक़ाबिल कभी ऐसी तो न थी।

अगले वक़्तों में यहाँ छेड़ खुली चलती थी
पुरसिशे-तौक़ो-सलासिल<ref>शस्त्रपूजा</ref> कभी ऐसी तो न थी।

ज़िन्दगी लाख बुरी लाख बुरी थी लेकिन
ख़ुद-अज़ीयत<ref>ख़ुद को सताना</ref> की वो क़ाइल कभी ऐसी तो न थी।

सोज़ आवाज़ पे आवाज़ लगाता ही रहा
मर्ग ताख़ीर पे माइल<ref>बिलम्ब पर उतारू</ref> कभी ऐसी तो न थी॥*

  • यह ग़ज़ल बहादुरशाह ज़फ़र की ज़मीन पर लिखी गयी है। उनकी बेहद मशहूर ग़ज़ल का मतला यूँ है :


'बात करनी मुझे मुश्किल कभी ऐसी तो न थी।
जैसी अब है तेरी महफ़िल कभी ऐसी तो न थी।।'

उनके सम्मान में मैंने अपनी ग़ज़ल में मतला छोड़ दिया है।

2017

शब्दार्थ
<references/>