भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बहारें खोती जाती हैं / जनार्दन राय

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

उम्मीदों की दुनियां मेरी बहारें खोती जाती हैं,
गमन तेरा तरुण सुनकर मलिन रह होती जाती है।
बहारे खोती जाती हैं।

जिसे सींचा सदा तुमने था अपना नेह-जल देकर,
वही आशा-लता मुरझा कर देखो खोती जाती है।
बहारे खोती जाती हैं।

है विद्यालय वही, वे ही सुमन, तरु-डालियाँ वे ही,
मगर मस्ती नहीं अब तो उदासी आती जाती है।
बहारे खोती जाती हैं।

छोड़कर चल दिये अपने न सच होंगे कभी सपने,
हुलसने की घड़ी बीती, रुलाई आती-जाती है।
बहारे खोती जाती हैं।

क्षमा करना दया करके बसा उर में सदा अपने,
नहीं भाषा, नहीं वाणी, खामोसी छाती जाती है।
बहारे खोती जाती हैं।

-समर्था,
2.8.1985 ई.