भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
बहार आई खिले गुल हाय रंगी लालाज़ारों में / रतन पंडोरवी
Kavita Kosh से
बहार आई खिले गुल हाय रंगी लालाज़ारों में
क़ियामत की तड़प है आज तेरे बे-करारों में
कहां तक ऐ दिले-मुज़्तर ये शग्ले-गिरियए-पैहम
जिगर पारे बहे जाते हैं ख़ूनी आबशारों में
न देखी हश्र के दिन भी सुकूने-क़ल्ब की सूरत
यहां भी एक हंगामा है तेरे बे-करारों में
निगाहे-नाज़ की हल्की सी जुम्बिश इक क़ियामत है
लिए जाते है वो दिल को इशारों ही इशारों में
निशाने-सरबलंदी ऐ 'रतन' पस्ती में मिलता है
बसर करता हूँ अपनी ज़िन्दगी में ख़ाकसारों में।