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बहार आई गुलों को शाख़ पर इतराना चाहिए / कृपाशंकर श्रीवास्तव 'विश्वास'
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बहार आई गुलों को शाख़ पर इतराना चाहिए
उदासी खुशनुमा माहौल है मिट जाना चाहिए।
बगीचे में तू आये या न आये ऐन वक़्त पर
मुझे दीदार तेरा ख़्वाब में रोज़ाना चाहिए।
चमन में कोंपलें हर सू दिखें निकली नई-नई
अय पीले पड़ चुके पत्तों तुम्हें झर जाना चाहिए।
अगर घर एक है कानून दो होना गुनाह है
तिरंगा शान से आकाश में लहराना चाहिए।
उठा कर हाथ दुश्मन डाल दे हथियार जब कभी
उसी पल आप की तलवार को रुक जाना चाहिए।
हटा ले होट से सागर अगर ऐसी ख़ता हुई
कहेगा एक दिन साक़ी मुझे मैखाना चाहिए।
सलीक़ा मयकशी का सीख पाए जो न अब तलक
उन्हें 'विश्वास' के घर बिन कहे आ जाना चाहिए।