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बहार आई ब-तंग आया दिल-ए-वहशत / वली 'उज़लत'
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बहार आई ब-तंग आया दिल-ए-वहशत पनाह अपना
करूँ क्या है यही चाक-ए-गिरेबाँ दस्त-गाह अपना
टपकती जो तरह सुम्बुल से होवे पै-ब-पै शबनम
हमारे हाल पर रोने लगा अब दूद-ए-आह अपना
मेरा दिल लेते ही कर चश्म-पोशी मुझ से मुँह फेरा
नज़र आता नहीं कुछ मुझ को दिल-बर से निबाह अपना
सितम से दी तसल्ली इस कमाँ-अबरू के क़ुर्बां हूँ
रग-ए-जाँ कर दिया दिल को मेरे तीर-ए-निगाह अपना
तू हरजाई न हो घट जाएगा जूँ ज़र-अय्यारों में
ये ‘उज़लत’ बन्दा अपना फ़िदवी अपना ख़ैर-ख़्वाह अपना