बही जा रही है समय की नदी यह / उर्मिल सत्यभूषण
बही जा रही है समय की नदी यह
न रोके रुकी है समय की नदी यह
खुशी है कि ग़म है, यह अश्कों से नम है
सदा जल भरी है, समय की नदी यह
पिघलती, उमड़ती, उफनती, सरकती
निरंतर बढ़ी है समय की नदी यह
पहाड़ों को फाड़े, रुखों को उखाड़े
बड़ी बलवती है समय की नदी यह
कभी लालो गौहर, कभी रेत तट पर
बिछाती चली है समय की नदी यह
गिरों को उठाती उठों को गिराती
कि समता मयी है समय की नदी यह
सरापा मुहब्बत, कभी आबे नफ़रत
कभी खूं-सनी है समय की नदी यह
बड़ा हो या छोटा, खरा हो या खोटा
किसे छोड़ती है समय की नदी यह
घमंड़ों के पंडे, पखंडों के झंडे
झुकाती रही है समय की नदी यह
कहानी है फ़ानी, सुनाता है पानी
युगों से जुड़ी है समय की नदी यह
कभी कोई आता, समय बंध लगाता
उसे पूजती है समय की नदी यह
दिये कुछ जला दो उसे रोशनी दो
कि अंधी गली है, समय की नदी यह
ओ उर्मिल न झुकना रवां हो न रुकना
कि तुझमें रमी है समय की नदी यह।