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बहुत-सी लड़कियाँ / रंजना जायसवाल
Kavita Kosh से
आज भी
गुड़ियों से खेलती
और गुड़िया बन जाती हैं
गाँव-कस्बे की
बहुत -सी लड़कियाँ
सजती- सँवरती हैं
खेलती हैं,लड़कियों का खेल चूल्हा चौका,
पकाना –खिलाना, सीना-पिरोना,माँजना –धोना
साफ-सफाई,बच्चों को संभालना।
ये काम ज्यादा जरूरी होता है,उनके लिए
पढ़ाई-लिखाई से।
उन्हें बताया जाता है
‘क’ से ‘कलम’ और ;किताब’ नहीं
‘करछुल’ और ‘कढ़ाई’ पढ़
‘ख’ से ‘खेलना’ और ‘खुशी’ नहीं होता सिर्फ
‘खाना’ पकाना और ‘खामोश’ रहना पढ़
करेगी क्या ‘ग’ से ‘गुनगुना कर’
चार बातें सुनकर भी ‘गम खाना’ पढ़
‘घ’ से घर ही होता है पर तेरा नहीं
दूसरे के घर को बनाना –सजाना पढ़
और इस सबक को पढ़कर
गुड़ियों से बतियातीं अपना दुख
गुड़िया बन जाती हैं
गाँव-कस्बे की बहुत सी लड़कियाँ
आज भी।