बहुत उदास था मैं / कर्णसिंह चौहान
सोफिया
तुमसे मिलने से पहले बहुत उदास था मैं
कितने युवा वर्ष
भविष्य के सपने
विश्व के बसंत की कामना
एक-एक कर टूटीं
तुमने भी क्या दिया
झूठी आशा
विश्वासों का भुलावा
और बाहरी तामझाम
तुमने जो दिखाया उसमें कहाँ था वो सपना
कहाँ था वो मानव
वो समाज
उसका स्वांग था केवल
और कोरी सत्ता थी
अधूरे लोग
मंत्र जाप और मूर्तियां
सोफिया
तुमसे मिलकर बहुत निराश था मैं
चाहता रहा तुम्हारा पतन
और ध्वंस
कब टूटें, मूर्तियां, मंदिर
कब ढ़हें मकबरे
ये आलीशान दफ़्तर
सोफिया
तुममें बसकर कितना बदहवास था मैं
तुमने केवल सत्ता के दुर्ग रचे
उन्हीं में मार्क्स को दफ़्ना दिया
जीवन को लाचार
और नीति को फ़रेब बना दिया
माना कि इस सबको
हैवान ने ही तोड़ा
जानता हूँ
उन्होंने नया कुछ भी नहीं जोड़ा
इस आकस्मिक ध्वंस पर
तुम भी दुखी हो
शायद मैं भी
झड़ गई है सपनों पर पड़ी धूल
अंगड़ाई ले रही हैं
प्राथमिक प्रतिज्ञाएं
संभल रहे हैं पैर
जंग छुड़ा रहे हैं हथियार
सोफिया
तुमसे बिछ्ड़कर कितना उजास हूँ मैं।