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बहुत उदास वज़ीरों में एक मैं भी हूँ / विजय किशोर मानव

बहुत उदास वज़ीरों में एक मैं भी हूं।
शाहदिल चंद फ़क़ीरों में एक मैं भी हूं।।

मेरे तमाम गुनाहों की सज़ा है शायद
शहर की हांफती भीड़ों में एक मैं भी हूं।

जो स्याह रात के माथे पे भोर लिखती हैं
कुछ ऐसी सुखऱ् लक़ीरों में एक मैं भी हूं।

जो थक के उठते हैं, चलते हैं, चला करते हैं
लाम के थोड़े से मीरों में एक मैं भी हूं।

वो जिसने मुझको चलाया, उसे भी याद नहीं
लग के खोए़ हुए तीरों में एक मैं भी हूं।