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बहुत कठिन हैं गरमी के दिन / मधुसूदन साहा
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बहुत कठिन हैं गरमी के दिन
नहीं निकलना घर से बाहर।
चलती हवा बबूलों जैसी,
लू चुभती है शूलों जैसी
मुरझाई है सबकी सूरत
सुबह-सुबह थी फूलों जैसी,
किरणे अंगारे बरसाती
डंक मारती रह-रह दुपहर।
कुलफीवाला हाँक लगाता,
कीमत गरमी आँक लगाता,
सड़क किनारे सब्जीवाला,
तरबूज़ों की फाँक लगाता,
आँधी, अंधेड़, तेज हवाएँ
सब लगते सूरज के सहचर।
घर के अंदर नींद न आती,
बिना बताये बिजली जाती,
बाहर दादाजी अकलाते-
भीतर दादीजी अकुलाती,
चैन न आती है पलभर भी
सब करते हैं बाहर-भीतर।