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बहुत करीब था मयखाना / संतोष श्रीवास्तव
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रात के खौफनाक सन्नाटे में रह-रह कर उभर आती अजनबी चीखें चौंकाती रहीं रात भर सुबह के पास
कोई आवाज़ न थी भोर होते ही ढ्ल गया सूरज साँस रोके रही
हर एक रहगुज़र कोई आहट, कोई कदमों के
निशाँ भी न थे बाकी उन पर न कहकहों की गूँज न मासूम हँसी के फूल सब कहाँ दफ्न हुए
थी वहाँ लपटों की तपिश एक मजबूर खलिश मस्जिद से दूर न था बुतखाना बीच में था मयखाना जहाँ न तपिश थी न खलिश होठों से सटे जाम थे मुट्ठी में कायनात और पहरे पर सलीबें न जाने किसके हिस्से की