बहुत कुछ बीच बाजार / लीलाधर मंडलोई
कुछ पेड़ हैं वहाँ कि इतने कम
एक कुत्ता है कोठी में भागता-भौंकता
बकरियाँ व्यस्त हैं इतनी कि मुश्किल से
ढूँढ पातीं घास के हरे तिनके कि उगे कहीं-कहीं
सड़क जो पेड़ों के पीछे बिछी उस पर
कारों के दौड़ने के दृश्य ख़ूब
और एक साइकिलवाला है चेन उतारने-चढ़ाने में मशगूल
इधर कमरे में जो बैठा हूँ देखता
निचाट अकेलेपन की स्थिर हवा का शिकार
पुरानी पड़ चुकी ट्यूबलाइट से रोशनी इतनी कम
कि उदास होने के अहसास में डूबी चीजें
कहीं कोई हड़बडी नहीं कि बदलती है सदी
एक मेरी अनुपस्थिति की हाज़िरी के बग़ैर
बाज़ार में बढ़ती ललक है हस्बमामूल
दुकानों का उजाला चौंधता बंद आँखों में इस हद
कि बची-ख़ुची रेजगारी उछलती हाथों से
रोकता मैं कि आख़िरी दिन है तिस पर
देखता कि लुट रहा है बहुत कुछ बीच-बाज़ार