बहुत थोड़े शब्द हैं / राकेश रोहित
बहुत थोड़े शब्द हैं, कहता रहा कवि केवल
और सोचिए तो इससे निराश नहीं थे बच्चे ।
खो रहे हैं अर्थ, शब्द सारे
कि प्यार का मतलब बीमार लड़कियाँ हैं
और घर, दो-चार खिड़कियाँ
धूप, रोशनी का निशान है
फूल, क्षण का रुमान !
और जो शब्दों को लेकर हमारे सामने खड़ा है
जिसकी मूँछों के नीचे मुस्कराहट है
और आँखों में शरारत
समय, उसके लिए केवल हाथ में बंधी घड़ी है ।
घिस डाले कुछ शब्द उन्होंने, गढ़ता रहा कवि केवल ।
ऐसे में एक कवि है कितना लाचार
कि लिखे दुःख के लिए घृणा, और उम्मीद को चमत्कार ।
क्या हो अगर घिसटती रहे कविता कुछ तुकों तक
कोई नहीं सहेजता शब्द ।
बच्चों के हाथ में पतंगें हैं, तो वे चुप हैं
लड़कियों के घरौंदे हैं तो उनमें ख़ामोश पुतलियाँ हैं
माँ के पास कुछ गीत हैं तो नहीं है उनके सुयोग
बहनों के कुछ पत्र, तो नहीं हैं उनके पते
कुछ आशीष तो नहीं है साहस
कहाँ हैं मेरे असील शब्द ?
क्या होगा कविता का
बना दो इस पन्ने की नाव<ref>कविता लिखे जाने समय प्रकाशित होने का अर्थ सामान्यतया काग़ज़ पर छपने से था ।</ref>
तो कहीं नहीं जाएगी
उड़ा दो बना कनकौवे तो
रास्ता भूल जाएगी ।
केवल हमीं हैं जो कवि हैं
किए बैठे हैं भरोसा इन पर
एक भोली आस्था एक ख़त्म होते तमाशे पर
लिखते हैं ख़ुद को पत्र
ख़ुद को ही करते हैं याद
जैसे यह ख़ुद को ही प्यार करना है.
एक मनोरोगी की तरह टिका देते हैं
धरती, शब्दों की रीढ़ पर
जबकि टिकाओ तो टिकती नहीं है
उंगली भी अपनी ।
बहुत सारा उन्माद है
बहुत सारी प्रार्थना है
और भूलते शब्द हैं ।
हमीं ने रचा था कहो तो कैसी
अजनबीयत भर जाती है अपने अंदर
हमीं ने की थी प्रार्थना कभी
धरती को बचाने की
सोचो तो दंभ लगता है ।
हमीं ने दिया भाषा को संस्कार
इस पर तो नहीं करेगा कोई विश्वास ।
लोग क्षुब्ध होंगे
हँस देंगे जानकार
कि बचा तो नहीं पाते कविता
सजा तो नहीं पाते उम्मीद
धरती को कहते हैं, जैसे
हाथ में सूखती नारंगी है
और जानते तक नहीं
व्यास किलोमीटर तक में सही ।
टुकड़ों में बँट गया है जीवन
शब्द चूसी हुई ईख की तरह
खुले मैदान में बिखरे हैं
इनमें था रस, कहे कवि
तो इतना बड़ा अपराध !
बहुत थोड़े शब्द हैं, कहता रहा कवि केवल
घिस डाले कुछ शब्द उन्होंने, गढता रहा कवि केवल ।