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बहुत दिनों तक समझ न पाये करम वही हम को खल रहा है / रंजना वर्मा

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बहुत दिनों तक समझ न पाये करम वही हम को खल रहा है
किये अनाचार हैं हम ने जो भी उसी से भूतल ये जल रहा है

चटक रहा है गला हमारा दिखे न पानी की बूंद कोई
शज़र न कोई मिली न छाया बहुत पसीना निकल रहा है

तटस्थ हम हो गए हैं इतने कि देख कर रक्त की नदी भी
हैं गिन रहे सैनिकों की लाशें न खून अपना उबल रहा है

न तुम से थी कोई दुश्मनी ही नही था तुम से हमारा रिश्ता
हमारा खूं गिर के सरहदों पे तुम्हारे लोहू से मिल रहा है

हमारे दिल मे धड़क रही है तुम्हारे दिल की ही कोई धड़कन
तुम्हारी साँसों का दीप है जो हमारी साँसों में जल रहा है

तुम्हारे ख्वाबों की महफिलों में हमारी भी है गुजर जरा सी
तुम्हारी यादों का हुस्ने गुलशन हमारी यादों में पल रहा है

जलाये तुमने ही आशियाने उसाँस बन कर भटकतीं आहें
तुम्हारा ही कोई टूटा अरमाँ बहार का दिल मसल रहा है

मिलाया जो था नदी में आँसू उसी से है ऐसी बाढ़ आयी
बरस रहा है जो इतना पानी न बादलों से संभल रहा है

जहाँ गिरे अश्क़ आशिकों के वहाँ वहाँ हो रही ज़ियारत
जहाँ गिरे क़तरे खून के हैं कोई पैग़म्बर टहल रहा है