भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बहुत दिन पहले तुमने दी थी मुझे बती धूप / रवीन्द्रनाथ ठाकुर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बहुत दिन पहले तुमने दी थी मुझे बती धूप,
आज उसके धुएँ में से निकल रहा सुन्दर रूप;
मानो किसी पौराणिक व्याख्यान में
स्तब्ध मेरे ध्यान मंे
धीर पदक्षेप से आई कोई मालविका
लिण् शुभ्र दीप शिखा
महाकाल मन्दिर के द्वार पर
न जाने किस युगान्तर पारपर।
आई हो सद्य स्नान करके तुम
तुम्हारी सिक्त वेणी लिपट गई ग्रीवा से,
मृदु गन्ध आती चन्दन की
अंग की बयार से।
ऐसा जान पड़ता है
हो तुम पुजारिनी,
बार बार देखा तुम्हें,
परिचय हुआ बार बार,
आती तुम मृदु मन्द पद क्षेप से
चिरकाल की वेदी तले
चुन चुनकर पुष्प नाना
पूजा के
शुचि शुभ्र वसन अंचल में।
अपनी आँखों की शान्त स्निग्ध दृष्टि में
पौराणिक वाणी को वहन कर लाती तुम
वर्तमान युग की इस भाषा की सृष्टि में।
सुललित हाथों के कंगन में
प्रिय जन कल्याण की है कामना।
आत्म विस्तृत तुम्हारी प्रीति
आदि सूर्योदय से
वहा लाती धारा है उज्जवल प्रकाश की।
सुदूर काल से कर में लिये सेवा रस आई तुम
आतप्त ललाट मेरा हो रहा शान्त आज तुम्हारे ही स्पर्श से।

‘उदयन’
प्रभात: 2 दिसम्बर