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बहुत दिन बीते / शलभ श्रीराम सिंह

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रगों में जो हमारी दौड़ता है
लहू है-आग जल्दी पकड़ता है !
अब
इसे बाहर निकालेंगे
और खुद पर ही उछालेंगे !

बन्धु !
यदि तुम पर कहीं पड़ जायँ छींटे
सोचना.......................!
अच्छा न लगने पर इन्हें धोना !
और यदि भा जाँय
तो यह मानकर : उनमें कहीं हम हैं
उम्र भर महसूस करना :
पसीने में नहाते बहुत दिन बीते !
(1965)