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बहुत दूर तुम, बहुत पास तुम / हनुमानप्रसाद पोद्दार

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बहुत दूर तुम, बहुत पास तुम, दूर-पास दोनोंसे दूर।
तुममें नित्य बसी मैं, मुझमें तुम सब ओर सदा भरपूर॥
एक-पृथक्‌ का प्रश्र बने तब, जब हो कभी भिन्न अस्तित्व।
एक रहस्यपूर्ण रसमय है नित्य अभिन्न सव-चितव॥
तब भी अनुभव करते दोनों दोनोंका संयोग-वियोग।
मिलन परम अचिन्त्य सुख देता, अमिलन परम दुःख-संयोग॥
बढ़ती पल-पल मिलन्कांक्षा, जाती नित अनन्तकी ओर।
रस-समुद्र शुचि बहने लगता, सहज छोड़ मर्यादा-छोर॥